एक समय था जब वैज्ञानिक यह मानते थे कि पलास फिश ईगल हिमालय के उत्तर में, विशेषकर मंगोलिया में प्रजनन करते हैं। यह अनुमान इतना गलत भी नहीं था क्योंकि अधिकांश प्रवासी पक्षी ठंड के मौसम में गर्म इलाकों की ओर बेहतर भोजन और संसाधनों की तलाश में उड़ते हैं न की प्रजनन के लिए। ऐसे पक्षियों में अमूर फाल्कन, साइबेरियाई सारस शामिल हैं।
पलास फिश ईगल अक्तूबर से मार्च के बीच भारत, बांग्लादेश और भूटान में समय बिताते हैं और फिर मंगोलिया लौट जाते हैं, इसलिए यह मान लेना स्वाभाविक था कि अन्य प्रवासी प्रजातियों की तरह ये भी सर्दियों के महीनो में अपेक्षाकृत गर्म क्षेत्रों में भोजन के लिए आ रहे हैं। पर वैज्ञानिकों को तब अचरज हुआ जब 2005 के बाद किये गए दो अलग-अलग सर्वेक्षण से यह पता चला कि सदियों से प्रवास कर रहे ये खास मेहमान असल में भारत ही की पैदावार है।
जन्मभूमि भारत
1900 से पहले, पलास फिश ईगल एशिया के एक बड़े हिस्से में आम थे, जो पश्चिम में कैस्पियन सागर से लेकर पूर्व में चीन तक और उत्तर में रूस से लेकर दक्षिण में भारत और म्यांमार तक फैला हुआ था। अब यह प्रजाति म्यांमार, रूस और कैस्पियन सागर क्षेत्र में विलुप्त हो चुकी है।
अन्य फिश ईगल पक्षियों की तरह यह भी जीवन पर्यन्त एक जोड़ा बनाते हैं और हर साल एक ही घोंसले को सवांरते-सुधारते 1-3 अंडे देते हैं। ये विशालकाय घोंसले अक्सर नदियों, धाराओं और नम-भूमियों के किनारो के पेड़ों पर बनाए जाते हैं जहां से आसानी से उनके मुख्य भोजन- मछली का शिकार किया जा सके।
जब वैज्ञानिकों ने मंगोलिया में 2005-2009 के बीच और फिर मंगोलिया और भारत में 2012-2015 के बीच दो अलग सर्वेक्षण किए तो उन्हें मंगोलिया में प्रजनन का कोई प्रमाण नहीं मिला। बल्कि दुर्गा, लचित, और चंगेज नाम के तीन पलास ईगल की पीठ पर जीपीएस ट्रैकर लगाकर वैज्ञानिकों ने पाया कि यह प्रजाति केवल उत्तरी भारत (मुख्य रूप से असम और उत्तराखंड में), और बांग्लादेश में प्रजनन करते हैं।
कजाकिस्तान, रूस और मंगोलिया में यह गैर-प्रजनन मौसम (मई से सितंबर) में रहते हैं। यानी हर साल ये जोड़े भारत आकर अपने वर्षों से उपयोग में लाए जा रहे घोंसले में नए जीवन को जन्म देते हैं।
एक और अनोखी बात जो सामने आई वो ये कि ट्रैक किए गए पक्षियों ने 6,000 मीटर से अधिक की ऊंचाई पर हिमालय के ऊपर से सीधे उड़ान भरी। पहले इस ऊंचाई का रिकॉर्ड केवल बार हेडेड गीज पक्षी के नाम ही दर्ज था जो आज भी 7000 मीटर से अधिक की ऊंचाई पर उड़कर अपने प्रवास के लिए आते-जाते हैं।
शक्तिशाली शिकारी
पलास फिश ईगल ऊपर से गहरे भूरे रंग के होते हैं, जबकि पेट हल्के रंग का और सिर मैला-सा धूसर होता है। उड़ान के दौरान नीचे से देखने पर इनकी गहरी पूंछ पर चौड़ी सफेद पट्टी सबसे आकर्षक विशेषता होती है जिसके कारण इन्हें एक और नाम भी दिया गया हैं – बैंड-टेल्ड फिश ईगल।
पानी की सतह से मछलियां पकड़ने के अलावा, ये जल पक्षियों जैसे बत्तख, हंस, कूट और डेमोइसल क्रेन का शिकार भी करते हैं, साथ ही बगुलों के घोंसले और प्रजनन स्थलों से युवा आईबिस, ओपनबिल, डार्टर और टर्न पक्षियों का भी शिकार करते हैं। इन भारी भरकम शिकारियों को वयस्क हंस और अपने वजन से दोगुनी बड़ी मछलियां उठाकर उड़ते हुए भी देखा गया है। ऑसप्रे जैसे पक्षियों से ये खाना झपटकर लेने में भी माहिर हैं।
दुर्भाग्यवश अपनी अद्भुत शिकार क्षमता और अकल्पनीय मीलों की सालाना उड़ान की क्षमता के बावजूद आज दुनिया में केवल 1000-2499 पलास फिश ईगल ही शेष बचे हैं और इसी वजह से इन्हें लुप्तप्राय जीव-जंतुओं कि श्रेणी में रखा गया है।
जो पक्षी हिमालय कि चोटी लांघकर भारत अपने वंश को आगे बढ़ाने आते हैं आज उनकी संख्या इसलिए कम होती जा रही है क्योंकि हम ऊंची इमारतों के जंगल बसाने में उनसे उनके झील, नम-भूमि, किनारों में लगे पेड़ और घोंसले छीन रहे हैं। आशा हैं आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए ये विलुप्तता कि कगार में खड़े पक्षी अपने जन्मभूमि में सुरक्षित रह पाएंगे।
Original Publication: Amar Ujala
Date: 5 December, 2024
Link: पलास फिश ईगल