Amar Ujala – Atula Gupta https://atulagupta.in Science | Nature | Conservation Wed, 28 May 2025 06:58:57 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.8.1 चिंता: सुंदरबन पर मंडराता जलवायु परिवर्तन का काला साया https://atulagupta.in/2025/03/10/%e0%a4%9a%e0%a4%bf%e0%a4%82%e0%a4%a4%e0%a4%be-%e0%a4%b8%e0%a5%81%e0%a4%82%e0%a4%a6%e0%a4%b0%e0%a4%ac%e0%a4%a8-%e0%a4%aa%e0%a4%b0-%e0%a4%ae%e0%a4%82%e0%a4%a1%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%a4%e0%a4%be/ https://atulagupta.in/2025/03/10/%e0%a4%9a%e0%a4%bf%e0%a4%82%e0%a4%a4%e0%a4%be-%e0%a4%b8%e0%a5%81%e0%a4%82%e0%a4%a6%e0%a4%b0%e0%a4%ac%e0%a4%a8-%e0%a4%aa%e0%a4%b0-%e0%a4%ae%e0%a4%82%e0%a4%a1%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%a4%e0%a4%be/#respond Mon, 10 Mar 2025 06:42:51 +0000 https://atulagupta.in/?p=257

गंगा, ब्रह्मपुत्र और मेघना नदियों के संगम पर स्थित सुंदरबन दुनिया का सबसे बड़ा ज्वारीय खारे पानी का मैंग्रोव वन है। भारत और बांग्लादेश के लगभग 10,000 वर्ग कि.मी. में फैला यह वन, किसी परिकथा की काल्पनिक दुनिया से कम नहीं।

घने मैंग्रोव वन, ज्वारीय जलमार्ग, नम-भूमि और द्वीप, जिनमें धरती, आकाश और पानी में रहने वाले अद्भुत जीव-जंतु निवास करते हैं। पर मानव द्वारा बनायीं गयी ऐसी कई चीज़े हैं जो आज सुंदरबन को नुक्सान पंहुचा रही हैं- प्रदूषण, नदियों पर बांधों का निर्माण, भूमि खनन और इन सब में सबसे बड़ा नाम – जलवायु परिवर्तन।

अद्वितीय सुन्दरी

सुंदरबन का नाम यहां पाए जाने वाले सुन्दरी पेड़ों के कारण हैं। इन पेड़ों की खास बात है उनकी हाथ-पांव सी दिखने वाली जड़ें जो पानी से बाहर सांस ले सकती हैं और जलमग्न स्थिति में भी ऑक्सीजन ग्रहण करने में मदद करती हैं। इनकी पत्तियां मोटी और मोमयुक्त होती हैं, जो पानी की कमी और उच्च लवणता के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करती हैं। पर जलवायु परिवर्तन इनकी क्षमताओं को चुनौती दे रहा है।

पिछले कुछ दशकों में बढ़ते समुद्र स्तर और मीठे पानी के प्रवाह में कमी के कारण सुंदरबन में मिट्टी और पानी की लवणता बढ़ रही है। सुंदरी पेड़ अधिक लवणता सहन नहीं कर पाते, जिससे उनका विकास रुक रहा है और कई स्थानों पर ये पेड़ मर रहे हैं।

बांग्लादेश स्पेस रिसर्च एंड रिमोट सेंसिंग ऑर्गनाइजेशन द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि चांदपाई रेंज जैसे क्षेत्रों में सुन्दरी पेड़ों का क्षेत्र 1988 में 16,000 हेक्टेयर से घटकर 2022 में 12,500 हेक्टेयर हो गया है। इन पेड़ों की जगह अब अधिक लवणता-सहनशील प्रजातियां, जैसे ‘कांकरा’ ले रही हैं। यानि ना केवल सुंदरबन के मूल पेड़ कम हो रहे हैं बल्कि इस पूरे वन का स्वरुप ही बदलता जा रहा है।

यह इसलिए एक बड़ी खतरे कि घंटी है क्योंकि सुंदरी पेड़ों के इर्दगिर्द यहां के जीव-जंतु और यहां रह रहे लोगों का पूरा संसार बसता है। मछली, मेंढक, कछुए इन पेड़ों के बीच अपने नवजात शिशुओं को जन्म देते है। सुंदरी पेड़ समुद्र से सटे गाँवों को समुद्र की ऊँची लहरें और समुद्री आंधियों, चक्रवातों से बचाते हैं।

अब जलवायु परिवर्तन के कारण सुंदरबन में चक्रवातों की तीव्रता और आवृत्ति बढ़ रही है। अम्फान, 2020; यास, 2021; बिपरजॉय, 2023; ये चक्रवात सुंदरबन क्षेत्र में भारी नुकसान का कारण बने, जिससे जीवन और पर्यावरण पर गहरा प्रभाव पड़ा है।

climate change challenges on sundarban how climate change affect forest

जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव – फोटो : तपन मुखर्जी

जीव-जंतुओं को खतरा

सुंदरबन दुनिया के कुछ अलबेले प्राणियों का भी घर हैं जैसे की मछुआरी बिल्ली, खारे पानी वाले मगरमच्छ, ओलिव रिडले टर्टल और गंगा नदी डॉलफिन। गंगा नदी डॉल्फिन या जिन्हें ‘सुसु’ भी कहा जाता है, भारत के राष्ट्रीय जलीय जीव हैं।

1879 से प्राप्त अभिलेखों के अनुसार, मीठे पानी में रहने वाले ये स्तनधारी जीव बंगाल की खाड़ी से लेकर हिमालय की तराई तक तैरते थे। एक समय था जब ये सुंदरबन में आमरूप से देखे जा सकते थे परन्तु अब क्योंकि मौसम के परिवर्तन के चलते पानी की लवणता बढ़ रही हैं, इनके आवास सिमटते जा रहे हैं।

पर क्या खारे पानी के मगरमच्छ अपनी संख्या बढ़ा पा रहे हैं? दुर्भाग्यवश, नहीं। इन मगरमच्छों को भी जीवित रहने के लिए और प्रजनन के लिए मीठे पानी के क्षेत्र की आवश्यकता होती है। उच्च तापमान अंडों के इनक्यूबेशन पर प्रभाव डालता है, जिससे बच्चे मगरमच्छों के लिंग अनुपात में असंतुलन हो सकता है।

यदि अंडों का तापमान 30°C से कम होता है, तो अधिकतर मादा, और 33°C या अधिक तापमान पर अधिकतर नर मगरमच्छ बनते हैं। पृथ्वी के बढ़ते तापमान का अर्थ हैं केवल नर मगरमच्छ।

सुंदरबन एक ऐसी प्राकृतिक धरोहर हैं जिसे हम अपनी तकनिकी काबिलियत के बावजूद कभी कृत्रिम रूप से नहीं बना पाएंगे। पर इस बढ़ते संकट से अब भी जुझा जा सकता है। मैन्ग्रोव वनों का पुनरोपण और संरक्षण, कटाव और लवणता को नियंत्रित करने के लिए टिकाऊ जल और भूमि प्रबंधन, स्थानीय लोगों की भागीदारी आज उस वन को बचा सकते है जिसने सदियों से इस क्षेत्र को बचा कर रखा है।


Original Publication: Amar Ujala

Date: 10 March, 2025

Link: सुंदरबन

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सर्दियों में भारत आकर परिवार बढ़ाते हैं दुर्लभ फिश ईगल https://atulagupta.in/2024/12/05/%e0%a4%b8%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%a6%e0%a4%bf%e0%a4%af%e0%a5%8b%e0%a4%82-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%ad%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a4%a4-%e0%a4%86%e0%a4%95%e0%a4%b0-%e0%a4%aa%e0%a4%b0%e0%a4%bf/ https://atulagupta.in/2024/12/05/%e0%a4%b8%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%a6%e0%a4%bf%e0%a4%af%e0%a5%8b%e0%a4%82-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%ad%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a4%a4-%e0%a4%86%e0%a4%95%e0%a4%b0-%e0%a4%aa%e0%a4%b0%e0%a4%bf/#respond Thu, 05 Dec 2024 06:56:38 +0000 https://atulagupta.in/?p=262

एक समय था जब वैज्ञानिक यह मानते थे कि पलास फिश ईगल हिमालय के उत्तर में, विशेषकर मंगोलिया में प्रजनन करते हैं। यह अनुमान इतना गलत भी नहीं था क्योंकि अधिकांश प्रवासी पक्षी ठंड के मौसम में गर्म इलाकों की ओर बेहतर भोजन और संसाधनों की तलाश में उड़ते हैं न की प्रजनन के लिए। ऐसे पक्षियों में अमूर फाल्कन, साइबेरियाई सारस शामिल हैं।

पलास फिश ईगल अक्तूबर से मार्च के बीच भारत, बांग्लादेश और भूटान में समय बिताते हैं और फिर मंगोलिया लौट जाते हैं, इसलिए यह मान लेना स्वाभाविक था कि अन्य प्रवासी प्रजातियों की तरह ये भी सर्दियों के महीनो में अपेक्षाकृत गर्म क्षेत्रों में भोजन के लिए आ रहे हैं। पर वैज्ञानिकों को तब अचरज हुआ जब 2005 के बाद किये गए दो अलग-अलग सर्वेक्षण से यह पता चला कि सदियों से प्रवास कर रहे ये खास मेहमान असल में भारत ही की पैदावार है।

जन्मभूमि भारत 

1900 से पहले, पलास फिश ईगल एशिया के एक बड़े हिस्से में आम थे, जो पश्चिम में कैस्पियन सागर से लेकर पूर्व में चीन तक और उत्तर में रूस से लेकर दक्षिण में भारत और म्यांमार तक फैला हुआ था। अब यह प्रजाति म्यांमार, रूस और कैस्पियन सागर क्षेत्र में विलुप्त हो चुकी है। 

अन्य फिश ईगल पक्षियों की तरह यह भी जीवन पर्यन्त एक जोड़ा बनाते हैं और हर साल एक ही घोंसले को सवांरते-सुधारते 1-3 अंडे देते हैं। ये विशालकाय घोंसले अक्सर नदियों, धाराओं और नम-भूमियों के किनारो के पेड़ों पर बनाए जाते हैं जहां से आसानी से उनके मुख्य भोजन- मछली का शिकार किया जा सके।

जब वैज्ञानिकों ने मंगोलिया में 2005-2009 के बीच और फिर मंगोलिया और भारत में 2012-2015 के बीच दो अलग सर्वेक्षण किए तो उन्हें मंगोलिया में प्रजनन का कोई प्रमाण नहीं मिला। बल्कि दुर्गा, लचित, और चंगेज नाम के तीन पलास ईगल की पीठ पर जीपीएस ट्रैकर लगाकर वैज्ञानिकों ने पाया कि यह प्रजाति केवल उत्तरी भारत (मुख्य रूप से असम और उत्तराखंड में), और बांग्लादेश में प्रजनन करते हैं।

कजाकिस्तान, रूस और मंगोलिया में यह गैर-प्रजनन मौसम (मई से सितंबर) में रहते हैं। यानी हर साल ये जोड़े भारत आकर अपने वर्षों से उपयोग में लाए जा रहे घोंसले में नए जीवन को जन्म देते हैं।

एक और अनोखी बात जो सामने आई वो ये कि ट्रैक किए गए पक्षियों ने 6,000 मीटर से अधिक की ऊंचाई पर हिमालय के ऊपर से सीधे उड़ान भरी। पहले इस ऊंचाई का रिकॉर्ड केवल बार हेडेड गीज पक्षी के नाम ही दर्ज था जो आज भी 7000 मीटर से अधिक की ऊंचाई पर उड़कर अपने प्रवास के लिए आते-जाते हैं। 

शक्तिशाली शिकारी 

पलास फिश ईगल ऊपर से गहरे भूरे रंग के होते हैं, जबकि पेट हल्के रंग का और सिर मैला-सा धूसर होता है। उड़ान के दौरान नीचे से देखने पर इनकी गहरी पूंछ पर चौड़ी सफेद पट्टी सबसे आकर्षक विशेषता होती है जिसके कारण इन्हें एक और नाम भी दिया गया हैं – बैंड-टेल्ड फिश ईगल।

पानी की सतह से मछलियां पकड़ने के अलावा, ये जल पक्षियों जैसे बत्तख, हंस, कूट और डेमोइसल क्रेन का शिकार भी करते हैं, साथ ही बगुलों के घोंसले और प्रजनन स्थलों से युवा आईबिस, ओपनबिल, डार्टर और टर्न पक्षियों का भी शिकार करते हैं। इन भारी भरकम शिकारियों को वयस्क हंस और अपने वजन से दोगुनी बड़ी मछलियां उठाकर उड़ते हुए भी देखा गया है। ऑसप्रे जैसे पक्षियों से ये खाना झपटकर लेने में भी माहिर हैं। 

दुर्भाग्यवश अपनी अद्भुत शिकार क्षमता और अकल्पनीय मीलों की सालाना उड़ान की क्षमता के बावजूद आज दुनिया में केवल 1000-2499 पलास फिश ईगल ही शेष बचे हैं और इसी वजह से इन्हें लुप्तप्राय जीव-जंतुओं कि श्रेणी में रखा गया है। 

जो पक्षी हिमालय कि चोटी लांघकर भारत अपने वंश को आगे बढ़ाने आते हैं आज उनकी संख्या इसलिए कम होती जा रही है क्योंकि हम ऊंची इमारतों के जंगल बसाने में उनसे उनके झील, नम-भूमि, किनारों में लगे पेड़ और घोंसले छीन रहे हैं। आशा हैं आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए ये विलुप्तता कि कगार में खड़े पक्षी अपने जन्मभूमि में सुरक्षित रह पाएंगे।


Original Publication: Amar Ujala

Date: 5 December, 2024

Link: पलास फिश ईगल

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